Friday, December 19, 2008
क्या आज का लोकतंत्र हिंसात्मक हो चला है...
कहा जाता है कि लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं होती। शायद यही वजह रही होगी की सदियों से किसी न किसी रूप में हिंसा की बेदी चढ़े भारत वर्ष के वास्तविक भाग्य निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की कल्पना की होगी। मोहनदास करमचंद गांधी तो महात्मा हो गए थे जिन्होंने ने तन, मन और धन से समर्पित हो देश में अहिंसा को हथियार बना ताकतवर अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल ही नहीं किया बल्कि उन्हें देश छोड़ने पर मज़बूर कर दिया।लोकतंत्र जैसा नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि लोगों के द्वारा लोगों का राज लोगों के हित के लिए। यानि सब साफ है कि जो व्यक्ति जनता-जनार्दन की नज़र में राज करने लायक होगा वह राज करेगा। सत्ता पर बैठेगा, अपना नहीं, जनहितार्थ अर्थात जनता की सेवा और संभावित बाह्य खतरों से सुरक्षा के लिए। इस काम की शुरूआत जनता की समस्या को समझना और अंत दीर्घकालिक निराकरण के साथ होता है। जनता की समस्या समझने के लिए जननायक और फिर जनता की आवाज बनने के लिए काफी प्रयास कर उनका विश्वास जीतना पड़ता है। तब कहीं जाकर जनता आपके सुर में सुर, कंधे से कंधा मिलाकर समस्या के समाधान के लिए जनांदोलन में शामिल होती है।जिन महान राजनेताओं ने लोगों के दर्द को समझा और फिर अपने सुख को त्याग कर उसके निराकरण के लिए अपनी आहूति दे दी वह दौर अब शायद भारतीय लोकतंत्र के लिए इतिहास से ज्यादा कुछ नहीं। अब ऐसा कोई नेता हो होगा या फिर निकट भविष्य में होगा यह एक कोरी कल्पना मात्र ही है। भारत में आज के राजनीतिक परिदृश्य में यह बात उजागर होती है कि नेता हिंसा का प्रयोग कर सत्ता पाने से भी गुरेज़ नहीं करते हैं। तो यह मान लिया जाए कि आज का लोकतंत्र हिंसात्मक हो चला है। या फिर यह कह सकते हैं कि हिंसात्मक लोकतंत्र जन्म लेने की प्रक्रिया में है।इस बात के अनगिनत उदाहरण देखे जा सकते हैं, देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी ने वोट की इसी राजनीति का सहारा लेकर दो बार सरकार बनाई। आज अपने को इससे दूर कर पाक साफ होने की कोशिश कर रही है कि वह एक सर्वसमाज की पार्टी है। वहीं, आजाद भारत में अब तक सत्ता का सर्वाधिक सुख भोगने वाली कांग्रेस पार्टी का दामन भी बेदाग नहीं है। कई दशकों के शासन के बाद भी कांग्रेस में एकता लाने की बात करती है जो बेमानी सी लगती है। कारण साफ है कि क्या किसी देश में एकता बनाए रखने के लिए के क्या आधी सदी के समय से भी ज्यादा समय लगता है। इसी हिंसात्मक लोकतंत्र का रूप में हमें उड़ीसा में, तो कभी महाराष्ट्र में देखने को मिल रहा है। यही कुछ गुजरात में देखने को मिला तो राजस्थान में गुर्जर आंदोलन भी इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। जम्मू-कश्मीर में उठा अमरनाथ श्राइन बोर्ड का जमीन विवाद, उत्तर पूर्वी राज्यों में जारी हिंसा भी तो इसी का एक रूप है। दक्षिण भारत के प्रदेशों में भी यही हाल कभी रहा करता था।कितनी अजीब बात है कि एक फौजी कर्नल (सेवानिवृत्त) किरोड़ी सिंह बैंसला हों, या फिर राज ठाकरे, सीना ठोक कर कहते हैं कि देश में सरकारें बहरी हो गईं है। यही कह की गई या की जा रही हिंसा को एक सामाजिक क्रांति या आंदोलन का नाम देने से भी ये नेतागण नहीं हिचकते। क्या यही सामाजिक क्रांति है जो देश का भविष्य तय करेगी।यहीं यदि हम यह ढूंढ़ने लग जाएं कि किसने क्या कहा तो यह फेहरिस्त तो कभी खत्म न होने वाली एक किताब बन जाएगी। इससे शायद ही कोई वर्तमान का नेता बच पाए।लेकिन क्या यह इस बात की ओर इशारा नहीं करती कि अब नेताओं को सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेने की कुछ ज्यादा ही जल्दी होती है।हाल के घटनाक्रम और भारत के स्वर्णिम इतिहास को यदि देखा जाए तो यही स्पष्ट होता है कि आज के नेताओं को परिणाम की चिंता ज्यादा सताती है। वाकई में वे अपने सामने अपनी सोच को कार्यांवित होते देखना चाहते हैं। लगता नहीं कि ये नेतागण देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत हो यह बातें करते हैं। जब देश प्रेम ही नहीं रहेगा तो देशहित कैसे सोच सकते हैं। यहां तो अब देश की अखंडता को बचाए रखने का प्रश्न खड़ा होता जा रहा है।कुछ एक रोज़ पहले मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने महाराष्ट्र की घटनाओं का संदर्भ लेते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि क्षेत्रवाद की राजनीति देश की अखंडता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। देश, समाज से, समाज परिवार से और परिवार एक मनुष्य से बनता है यह तो सभी जानते हैं। जरूरत इसी बात की है कि हम एक बार फिर एक ऐसी मुहिम चलाएं कि एक-एक नागरिक पहले स्वयं को भारतीय कहे, बाद में भी भारतीय ही कहे क्योंकि आजकल बाद की पहचान ही उस पर हावी हो उसके हाथों जघन्य अपराध करवाती है। अब देश के नीति-निर्माताओं को कुछ ऐसा करना चाहिए ताकि विसंगतिओं पर कुछ विराम लगे और देशप्रेम पर हावी हो रहे प्रांत प्रेम की लहर थम जाए।कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नेतागण धैर्य खो चुके हैं जो शायद कभी उन भारत माता के सपूतों में था जो अंग्रेजों की इस कहावत को सुनते बड़े हुए थे कि पश्चिम का सूरज कभी नहीं डूबता। अंग्रेजों का परचम गिरा भी, भारतीय तिंरगा लहराया भी। यह निश्चित रूप से उन बहादुर, निहत्थे राष्ट्रभक्तों के धैर्य की जीत थी जिन्होंने भले ही अपने जीते जी आजाद भारत में सांस न ली हो मगर उस लौ को बुझने भी नहीं दिया जिसने आगे चलकर अनगिनत राजाओं की जागीर में बंटे भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में देखा। आज मन में उन तमाम भारत के सच्चे सपूतों को शत-शत नमन जिन्होंने हमें 'एक भारत' दिया।इस पूरी कवायद से मन के भीतर कचोटते एक प्रश्न को प्रस्तुत करता हूं कि क्या वाकई में 'मजबूत' लोकतंत्र की नींव पर खड़े भारतवर्ष वर्तमान के नेताओं को देश जनता के सुख-समृद्धि की चिंता है।किसी ने खूब कहा है कि हथियारों की होड़ खत्म करने के लिए भी हथियार ही रखने होंगे। तो क्या आज की हकीकत है...
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