Tuesday, June 2, 2009
गांधी और गुरूदेव के बीच खूब होता था हास परिहास
एक दूसरे का बेहद सम्मान करने वाले महात्मा गांधी और गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के आपसी संबंधों का एक दिलचस्प पहलू वे मजेदार टिप्पणियां हैं जिसमें इन दो महान विभूतियों के उच्च हास्यबोध के साथ साथ गंभीर चिंतन मनन की झलक मिलती है। महात्मा गांधी की महानता पर गुरूदेव को कभी संदेह नहीं था लेकिन उनकी सफलता पर जरूर था। उन्होंने गांधी की मृत्यु से दस साल पहले कहा था शायद वह (गांधी) सफल न हों। मनुष्य को उसकी दुष्टता से मुक्त कराने में वह उसी तरह असफल रहें जैसे बुद्ध रहे जैसे ईसा रहे। मगर उन्हें हमेशा ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जायेगा जिसने अपना जीवन आगे आने वाले सभी युगों के लिए एक शिक्षा की तरह बना दिया।प्रसिद्ध गांधीवादी कृष्ण कृपलानी लिखित टैगोर की जीवनी के अनुसार एक वाकया 1915 में उस समय हुआ जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद शांतिनिकेतन गये। सुधारवादी गांधी ने शांतिनिकेतन में तमाम बदलाव और प्रयोग करवाये। गांधी की पैनी नजरों ने यह भी देख लिया कि गुरूदेव रात्रि के भोजन में मैदे से बनी और देसी घी में तली पूरियां (लूची) खाते हैं। ऐसे में सत्यनिष्ठ गांधी ने मौका न चूकते हुए गुरूदेव से कहा जिन्हें आप मजे से खाते चले जा रहे हैं वह आपके लिए जहर है। इस पर गुरूदेव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया बेशक यह मीठा जहर ही है क्योंकि मैं लगभग आधी सदी से इन्हें खाता चला आ रहा हूं।महाकवि टैगोर गांधी की इस नीति से सहमत नहीं थे कि चरखे से सूत कातना भारत की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने का अचूक नुस्खा है। उन्हें कांगेस पार्टी द्वारा सूत कताई का राजनीति लाभ उठाना भी रास नहीं आता था। गांधी के चरखा कार्यक्रम के लिए खुद को नितांत असमर्थ बताते हुए उन्होंने कहा मैं सूत की बजाय किस्से बेहतर तरीके से कात सकता हूं। महात्मा गांधी ने 1925 में फिर शांति निकेतन गये। गुरूदेव उन्हें फूल पत्तियों से सुंदरता से सजाये गये अपने कमरे में ले गये। सादगी पसंद गांधी ने नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार की सुकुमार जीवनशैली पर प्यारी चोट करते हुए कहा आप मुझे इस वधू के कमरे में क्यों ले जा रहे हैं। जवाब में गुरूदेव ने बेहद मासूमियत से कहा शांतिनिकेतन हमारे ह्म्दय की चिरयुवा रानी है। वह आपका स्वागत करती है।कृपलानी द्वारा लिखी गांधी की जीवनी में बताया गया है कि बिहार में 1934 के विनाशकारी भूकंप को महात्मा गांधी ने छूआछूत के पाप पर ईश्वर के प्रकोप का परिणाम बताया। गुरूदेव महात्मा की इस अवैज्ञानिक और अतार्किक बात का विरोध करने से कैसे चूक सकते थे। गुरूदेव ने अपना विरोध जताते हुए नम्रता के साथ कहा कि दैवी प्रतिशोध के नाम पर एक निराधार अंधविश्वास पूर्ण भय पैदा करने की यह पुरोहितों वाली नीति शायद महात्मा को ही शोभा देती हो। इसके जवाब में महात्मा गांधी ने हरिजन पत्रिका में लिखा मैं प्रकृति के नियमों के बारे में अपने पूर्ण अज्ञान को स्वीकार करता हूं। लेकिन जिस प्रकार मैं संशयवादियों के समक्ष ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में असमर्थ होने के बावजूद उसमें विश्वास करना नहीं छोड़ सकता। उसी प्रकार मैं बिहार के साथ अस्पृश्यता के पाप के संबंध को सिद्ध नहीं कर सकता। हालांकि मैं सहज ज्ञान के द्वारा इस संबंध को महसूस करता हूं। एक अन्य घटना में महात्मा गांधी ने गुरूदेव के 80 वें जन्मदिन पर शतवर्ष जीवित रहने की कामना करते हुए उन्हें अंगेजी में भेजे तार संदेश में कहा फोर स्कोर नाट एनफ। मे यू फिनिश फाइव, चार द्विदशक पर्याप्त नहीं हैं। आप पांच पूरे करें अर्थात सौ साल जियें। इस पर गुरूदेव ने बेहद नपे तुले शब्दों में सटीक और कवि सुलभ जवाब दिया फोर स्कोर इज इम्पर्टिनेंस। फाइव स्कोर इनटालरेबल, चार द्विदशक अर्थात 80 वर्ष तो गुस्ताखी के रहे। सौ असहनीय हो जायेंगे।
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