Sunday, March 21, 2010

अरे कलाकार हैं तो क्या हुआ, हुसैन थे तो भारतीय



एक बात कि कलाकार को भी हो सर्वजन हिताय का बोध बहुत जरूरी...


अरे कलाकार हैं तो क्या हुआ, हैं तो देश का बाशिंदा। समाज का एक हिस्सा। कलाकार हैं तो नागरिक भी तो हैं। ऐसे कैसे कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी कर सकता है। इन दिनों मकबूल फिदा हुसैन फिर चर्चा में हैं। जब से यह खबर आई है कि उन्होंने कतर की नागरिक्ता स्वीकार कर ली है, भारत में हलचल है। वे रोज अखबारों में, पत्रिकाओं में लिखे जा रहे है।
इस लेख को लिखने का उद्देश्य कलाकार के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर ही है। इसी स्वतंत्रता के नाम पर कुछ लोगों नाम कमाया (बदनाम होकर भी)। मुझे आज भी मेरी इंदौर में लगी एक कार्टून प्रर्दशनी के दौरान सुप्रसिद्ध चित्रकार स्व. विष्णु चिंचालकर के शब्द याद हैं। उद्घाटन अवसर पर अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि कला में संयम की चौखट जरूरी है अन्यथा कला विकृत रूप धारण कर लेती है और कलाकार व समाज को उसका खामीयाजा भुगतना पड़ता है। यह बात पुरानी जरूर हो गई मगर हर कलाकार के लिए आज भी सौ फीसदी सच है। फिर वह चाहे जिस भी विधा में काम करता हो। यह बात आज भी मुझे हर उस वक्त याद आती है जब मैं कोई कार्टून या चित्र बनाने के लिए ब्रश उठाता हूं। आज उसी संयम की चौखट लांघने की सजा हुसैन कतर में रहकर गुजार रहे हैं। और वह भी इन्हीं कदरदानों के कारण जिन्होंने उन्हें चित्रकार से ब्रांड बनाया दिया। सुप्रसिद्ध गणितज्ञ रामानुजन के जीवन से जुड़ी एक विशेष बात यहां प्रासंगिक हो जाती है। बात तब की है जब रामानुजन किशोर थे। रामानुजन का गणित बहुत पक्का है। यह बात दूर-दूर तक गांव में मशहूर थी। वे जब भी सड़क से गुजरते हर कोई उसकी तारीफ करता। वाह रामानुजन वाह। क्या बात है सुना है तुम तो गणित में बड़े माहिर हो। जितने लोग मिलते उतने ही अलंकारों से उसे नवाजते। मगर रामानुजन पर उन बातों का कोई असर न होता। वह तो नाक की सीध में स्कूल जाता और वैसा ही आता। कई दिनों तक यह चलता रहा। एक दिन उसके मित्र ने उससे पूछ ही लिया। सब लोग तुम्हारी इतनी तारीफ करते हैं पर तुम पर उसका कोई असर नहीं होता। तुम खुश भी नहीं होते। यह सुन रामानुजन ने सरलता से जवाब दिया। दोस्त इन लोगों की तारीफ से मैं क्यों खुश होने लगा। इन्हें तो गणित में दस तक गिनती भी नहीं आती। मैं तो तब खुशी होगी जब एक अच्छा गणितज्ञ मेरी तारीफ करे। एक कलाकार के लिए इससे ज्यादा सम्मान का विषय और क्या हो सकता है कि उसके पीछे कदरदानों की इतनी बड़ी फौज हो। एक कलाकार का सीना हुसैन का नाम पढ़कर भी गर्व से चौड़ा हो जाता है। सहसा ही वह कह उठता होगा कि कलाकार हो तो ऐसा। जो इतनी ख्याति अर्जित कर सके। एक चित्रकार होने के नाते मैं भी एसी ही महत्वाकांक्षाएं रखता हूं। लेकिन ऐसा मुकद्दर सबको नसीब नहीं होता। उसके लिए कुछ खास होना ही पड़ता है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर होता है कि उनकी तारीफ में कसीदे वे लोग पढ़ते हैं जिन्हें चित्रकला की एबीसीडी तक नहीं आती।


जिन्होंने कभी ब्रश नहीं पकड़ा। जो नहीं जानते कि कैनवास पर ब्रश रखने से पहले पेंटर का क्या उत्तरदायित्व होता है। वे तो सिर्फ लिखना चाहते हैं वो जो बिक सके। फिर भले ही उन्होंने हुसैन की कोई पेंटिंग समझ में आयी हो या नहीं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिरकार तारीफ के लिए रंगों की नहीं शब्दों की जरूरत होती है। जो उनके पास प्रचुर मात्रा में होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे पंडित जसराज के गायन में या जाकिर हुसैन के तबले की थाप पर वाह-वाह करने वालों की कमी नहीं होती। यह बात पंडित जसराज भी अच्छी तरह जानते हैं और जाकिर हुसैन भी, कि महफिल में उनके असली कदरदान कितने हैं।हाल ही में अखबार में छपी एक एसी ही खबर पर ज़रा गौर कीजिए। खबर थी की इन दिनों एमएफ हुसैन कतर में अपने आलिशान बंगले में बैठकर मानव निर्मित ऊर्जा (कार) बनाम प्राकृतिक ऊर्जा (घोड़ा) को अपने चित्रों से उकेरने में व्यस्त हैं। और वे इस काम में पिछले तीन साल से लगे हुए हैं। मगर हास्यास्पद विषय यह है कि इस खबर को रिपोर्टर ने 'हुसैन की पेंटिंग में झलकेगी कतर की सांसकृतिक धरोहर' का शीर्षक के साथ परोसा है। अब इसे क्या कहा जाए। कला की समझ या हुसैन की चाटूकारिता। जिसमें कतर की संस्कृति का दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। लेकिन उन्हें तो खबर बेचनी है क्योंकि वे हुसैन को कलाकार कम प्रॉडक्ट ज्यादा मानते हैं। यही हाल लिखने वालों का भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वे हुसैन पर तारीफों के इतने लेबल चिपकाते चले जाते हैं कि असली प्रॉडक्ट किसी को नज़र नहीं आता। यह बात हुसैन भी भली-भांति जानते होंगे। हुसैन को ऐसे कदरदानों से सावधान रहना चाहिए।देश में ही नहीं दुनिया में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात सभी करते हैं और चाहते भी हैं। किसी पर किसी प्रकार की रोक नहीं होनी चाहिए। मेरी नज़रों में अभिव्यक्ति सेक्स की तरह नितांत व्यक्तिगत चीज़ होती है जिसका सोच समझकर उपयोग करना चाहिए। आप एकांत में चाहे जो करें, किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन ऐसी अभिव्यक्ति जिससे समाज प्रदूषित हो किसी भी धर्म (सुप्रीम कोर्ट के मतानुसार) को मंजूर नहीं। आपकी कुशलता इसी में है कि आप समाज में कितना संतुलित व्यवहार करते हैं। और फिर ऐसे पब्लिक फिगर जिनको आम आदमी आपना आइडियल बनाने की सोचता हो उन्हें तो और भी सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि आने वाली पीढ़ी तो उन्हीं का अनुसरण करती है। फिर वह बिल क्लिंटन हो या टाईगर वुड। या फिर मकबूल फिदा हुसैन। अकेले में बैठकर जब कभी मैं भी पैगंबर मोहम्मद के बारे में सोचता हूं कि वे कैसे दिखते होंगे, उनका रहन सहन कैसा होगा तो कई बार उनके चित्र बनाता-मिटाता हूं। मगर उन्हें कभी सार्वजनिक नहीं करता। क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसी कला का कोई अर्थ नहीं है जो सर्वजन हिताय न हो। मानाकि चित्र बनाते समय एक कलाकार होने के नाते हम कल्पनाओं में खोए रहते हैं। मगर पेंटिग पूरी होने पर एक आम आदमी की नज़र से उसे देखते भी हैं। उचित लगता है तभी उसे प्रदर्शित करते हैं। शायद हुसैन ने यहीं गलती की है। उन्होंने अपना मूल्यांकन ठीक तरह से नहीं किया। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। अन्यथा मां सरस्वति का नग्न चित्र वे नहीं बनाते। मां सरस्वति कोई पैगंबर की तरह अवर्णित नहीं हैं, जिसे सोचना पड़े कि कैसे बनाया जाए। संपूर्ण वर्णित हैं। हांथ में वीणा, खुले केश, कमल पर विराजमान, श्वेत वस्त्र धारिणी। हुसैन ने अपनी सरस्वति नामक पेंटिंग में सब कुछ बनाया मगर केवल मां सरस्वति का शुभ्र सफेद आंचल बनाना भूल गए। उन्हें नग्न बनाया। आखिर क्यों। हुसैन यदि केवल न्यूड फार्म में काम करने वाले चित्रकार होते तो भी बात समझ में आती मगर उनका फार्म भी ऐसा नहीं है। वे खुली रेखाओं में कार्य करते हैं। जिसमें मां सरस्वति के वस्त्र बनाए जा सकते थे। फिर इसे क्या कहा जाए। हुसैन का यह हश्र होना लाज़मी था। हुसैन के पैरोकार तो आज भी कहते हैं कि यह तो कट्टरपंथियों का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। किंतु, मैं पूछना चाहता हूं उन सभी से की शिव की जटाओं बिना शिव पूर्ण नहीं हो सकते, हाथ में धनुष्य दिए बिना राम पूर्ण नहीं होते, नीला वर्ण दिखाए बिना कृष्ण का चित्र नहीं बनता और मदर टेरेसा की पेंटिंग सफेद साड़ी में नीले किनारे दिए बिना पूर्ण नहीं होती तो मां सरस्वति की पेंटिंग बिना श्वेत वस्त्र के कैसे पूर्ण हो सकती है। बात यहीं खत्म नहीं होती सिर्फ एक समाज के आदर्शों को वर्णित करने में ही गलती क्यों हुई है। पैगंबर का चित्र मेमोरी ड्रॉयिंग का विषय हो सकता है मगर मा सरस्वती की पैंटिंग नहीं। बिना मधुरी का वर्णन किए हुसैन की तारीफ पूरी नही होती। माधुरी के स्तंभ पर मोहित होने वाले मकबूल फिदा हुसैन ने स्त्री के तमाम चित्रों पर तुलिका चलाई है पर अनगिनत प्रमाण है कि वहां अभिव्यक्ति सीमित क्यों रह गई। माधुरी पर बनाई श्रृंखला बेहद रोचक थी। पेंटिंग्स पर हुसैन ने गजब का काम किया था। कलर कंपोजीशन जबरदस्त थी। हुसैन से एक पत्रकार ने सवाल किया तो हुसैन ने बेहद शुद्ध अंतःकरण से जवाब दिया। उन्होंने मधुरी को मां अधूरी की संज्ञा दी। मैं अख़बार में पढ़कर हुसैन के इन शब्दों का कायल हो गया था। लंबे समय बाद उन पेंटिंग्स को देखने का मौका मिला। मधुरी के साथ सांड के बलात्कार का चित्र देख आश्चर्य हुआ। जो व्यक्ति मधुरी मे अपनी अधूरी मां खोज रहा था उसे ऐसा काम नहीं करना चाहिए था। यह एक विकृत मानसिकता नहीं तो और क्या है।विरोध होना लाजमी था। अभिव्यक्ति का ढोल पीटने वाले कहते हैं हिंदू समाज सहिष्णु है। हिन्दुओं को ऐसा नहीं करना चाहिए। मैं कहता हूं कि सहिष्णु है इसलिए दो चार पेंटिंग जलाकर अपना गुस्सा ठंडा कर लेते हैं। किसी के सर कलम करने का फतवा जारी नहीं करते। एक कलाकार के नाते हुसैन के लिए मेरे दिल में आज भी इज्जत है। मैं उनकी रेखाओं का फैन था, हूं और हमेशा रहूंगा। लेकिन ऐसी सोच की कीमत पर नहीं। आप जहां भी रहें खुश रहें। मगर, अब संयमित रहें। अन्यथा सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन की तरह आपको पुनः भारत की शरण में न आना पड़े। तब तक के लिए अलविदा हुसैन...

(लेख के लेखक वरिष्ठ चित्रकार माधव जोशी हैं)

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