Tuesday, December 9, 2008
राज की 'दादागिरी' और नेताओं की 'नेतागिरी'
राज ठाकरे किसी के लिए अब नया नाम नहीं रहा। राज ठाकरे देश में आतंक का नया नाम बन चुका है। जी हां, लगता तो कुछ ऐसा ही है। कारण यह है कि जिन हत्याओं को देश के लोग, केंद्र की सरकार और राज्यों की सरकारें आतंकी कार्रवाई कहकर तिरस्कृत करती हैं, राज उन्हीं कदमों का उदाहरण देकर अपने वक्तव्यों और कार्यकर्ताओं को दिए गए निर्देशों के बाद हुई हत्याओं और तोड़फोड़ को जायज़ ठहरा रहे हैं। कई दिनों, फिर कई महीनों या फिर कुछ साल की मेहनत से आज आतंक का नया नाम राज ठाकरे बन ही गए हैं। राज ने यह साबित कर दिया है कि आतंक के जरिए वह अपनी मांग मनवा नहीं सकते तो कम से कम उचित मंच पर सुनवा सकते हैं। महाराष्ट्र के ही नहीं राष्ट्रीय स्तर के राजनेताओं के साथ-साथ देश की जागरुक मीडिया भी यह बात लगभग हर मंच से चीख पुकार कर राज ठाकरे और उसके मातहतों की करतूतों की चर्चा कर रही है। तो, इसका क्या अर्थ यही निकाला जाए कि भारतीय लोकतंत्र और फिर उसके संघीय ढांचे में बनीं प्रादेशिक सरकारों के कान अब सुनना नहीं चाहतीं। क्या यही कारण है कि आतंकियों की खिलाफत करने वाले (किसी भी कीमत पर राज ठाकरे नहीं) आज आतंकी रास्ते पर चलकर अपनी मांग रखने लगे हैं। यदि आगे चलकर यही दिशा देश में मौजूद अनेकों राजनैतिक और गैर राजनैतिक दल अपनाने लगें तो...खैर जाने दीजिए बात चली तो दूर तक चली जाएगी। हम अपने मुद्दे पर वापस आते हैं और फिलहाल राज ठाकरे और उसकी मराठी कार्ड तक ही सीमित रखते हैं ताकि मुद्दे की जड़ को समझा जा सके और हल पर आप भी कुछ विचार कर सकें। राज का मराठी कार्ड महाराष्ट्र के अन्य प्रमुख दलों से कुछ अलग है यानि बाकी दल छुपे तौर पर मराठी कार्ड खेलते आए हैं। राज ठाकरे की चेतावनी और सरेआम धमकी के बाद भी महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार द्वारा अपनाए गए तरीके सीधे सरकार को ही कटघरे में खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। उत्तर भारतीयों की सरेआम सड़कों पर हो रही पिटाई और नज़दीक खड़े पुलिसवालों की कान में जूं तक नहीं रेंगी। हाल ही का प्रकरण देखा जाए जिसमें एक उत्तर भारतीय की पहचान कर मुंबई की ट्रेन में उसे इतना मारा गया कि उसने दम तोड़ दिया। सरकार और प्रशासन की हीलाहवाली की हद तो तब हो गई जब उसकी मौत के 18 घंटों बाद तक इस घटना की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की गई। इतना ही नहीं परिवार पर इस बात भयावह दबाव बना दिया गया कि वह आपबीती बताने में भी हिचकिचाता दिखा। मृतक के भाई के गोरखपुर लौटने के बाद किए गए खुलासे इस देश के संघीय ढांचे के लिए एक ख़तरे की घंटी है। अभी से सजगता नहीं रखी गई तो...।यह घटना यह भी साबित करती है कि सरकार में मौजूद नेता संविधान से ऊपर उठ चुके हैं और अपने स्तर से महाराष्ट्र के 'राज' की राजनीति कर रहे हैं।पिछले वर्ष राज के गुंडों द्वारा किए गए हमले और इस वर्ष सरेआम की गई उत्तर भारतीयों की पिटाई में अब तक सैकड़ों लोगों ने अपनी जान गंवाई है। जी हां, कुछ तो सरकारी तौर पर स्वीकार किए जाने के बाद भी सरकार भले ही राज ठाकरे को आतंक का पर्याय नहीं मानती लेकिन राज ठाकरे की बातों को ही ध्यान से देखा जाए तो वह खुद को 'आतंकवादी' साबित करने का कोई मौका खोना नहीं चाहते।लगभग हर मंच पर राज ने यह बात कही होगी कि कश्मीर में उत्तर भारतीयों को मारा जाता है तो कोई कुछ नहीं कहता, असम में उत्तर भारतीयों को मारा जाता तो कोई कुछ नहीं बोलता, दक्षिण भारत में उत्तर भारतीयों पर... तो फिर क्यों नहीं। सही है कि कश्मीर में उत्तर भारतीयों की आतंकवादियों द्वारा हत्या और असम में आतंकवादियों द्वारा उत्तर भारतीयों की हत्या होती तो सभी यही कहते हैं कि यह आतंकवादी कार्रवाई है।राज्य सरकार हो या फिर केंद्र सरकार सभी एक सुर से इसे एक अपराध की श्रेणी में रखते हैं और साफ कहते हैं कि यह एक आतंकी कदम है। लेकिन राज ठाकरे पर किसी ने भी यह नहीं कहा। विलासराव देशमुख की सरकार तो आंख बंद किए हुए है और केंद्र सरकार का रवैया भी यही दर्शाता है। लेकिन जब राज ठाकरे बैख़ौफ धमकाने वाले अंदाज़ में यही कह रहे हैं तो उनकी बात को स्वीकार कर कार्रवाई क्यों नहीं की गई इस बात का समझ पाना कुछ असंभव सा है।
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