Monday, January 26, 2009

हमारे हुक्मरान ही बने हमारे दुश्मन

मुंबई हमले पर मीडिया रिपोर्टिंग और लाइव कवरेज से बवाल खड़ा हो गया। सरकार की आंखें तो खुली, मगर उसके हालिया कदम की आहट से ऐसा लगा जैसे सरकार ऐसे किसी मौके की तलाश में थी कि टीवी चैनलों पर तुरंत किसी भी रूप में लगाम लगा दी जाए।कारण साफ ही है कि जहां एक ओर इन्हीं टीवी चैनलों की आंख से पूरा देश अनगिनत अपराधों, भ्रष्टाचार और देश के वास्तविक हालातों से रूबरू हो रहा है, वहीं लगभग सभी राजनीतिक दलों की सरकारों और भीतरी भ्रष्टाचार भी उजागर हो रहे हैं।यहां तक की इसी माध्यम ने देश में लोकतंत्र के ही एक अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ अर्थात न्यायपालिका पर अपनी आंख टेढ़ी कर डाली।
दशकों से प्रताड़ित जनता की आवाज को एक मतलब दिलवाया। अपने इन कामों से मीडिया ने लोकतंत्र के सही मायने को धरातल पर उतार कर अपना दायित्व निभाया है।ये इस देश और देशवासियों का दुर्भाग्य ही है कि जो भी इस देश की ताकत है, उसे यहां की सरकार और सरकारी हुक्मरान पसंद नहीं करते। इनमें इस देश की भ्रष्ट पार्टियों के भ्रष्ट नेताओं के साथ-साथ देश की भ्रष्ट नौकरशाही भी शामिल है।वैसे कहने को ही ताकत का विकेंद्रीकरण करने की बात कही जाती है। जबकि, सही मायने में यह तभी सफल माना जा सकेगा, जब एक आम आदमी बिना किसी सिफारिश के थाने में अपनी रपट लिखवा पाएगा और उस पर की गई त्वरित कार्रवाई पर संतोष रख पाएगा। जब एक किसान को उसका वाजिब हक बिना किसी नेता की मदद के आसानी से मिल माने या न माने इस देश में एक आम आदमी की राय यही है कि मात्र मीडिया, चाहे वो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या फिर प्रिंट, ने ही देश को बरबाद होने से बचा रखा है। इसके अनगिनत उदाहरण हैं, जिन्हें गिनाने की जरूरत नहीं। वहीं, इस बात के भी अनगिनत उदाहरण हैं कि देश की बागडोर संभालने वाले नेताओं और नौकरशाहों ने लोगों को बेवकूफ बनाकर मात्र स्वहित और अपनी जेब का ख्याल रखते हुए लोगों पर आफतें ही लादी हैं।
एक बात के लिए संसद का धन्यवाद किया जाना चाहिए कि उन्होंने आजाद देश इतना बढ़िया काम कर दिया, जिसके लिए देश का हर नागरिक उसका आभारी रहेगा और वह है- देश में सूचना के अधिकार को लागू करना। यहां तक तो ठीक रहा, लेकिन इस कानून के लागू करने के बाद जब नेताओं और नौकरशाहों को यह समझ में आया कि यह तो उनके खिलाफ भी जा रहा है। फिर क्या था तुरंत कानून में फेरबदल कर दिए गए।कई ऐसे परिवर्तन किए गए, ताकि भ्रष्टाचार पर पर्दा पड़ा रहे। 117 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में सरकारी नौकरियों में कार्यरत लोगों को छोड़ दिया जाए तो मात्र कुछ लाख लोग ऐसे होंगे, जिन्हें यह मालूम होगा कि सरकारी महकमे किसी भी काम की जब फाइल बनती है तो उसी फाइल पर सरकारी नोटिंग होती है, जो फाइल का भाग्य तय करती है। यही नोटिंग सरकारी कार्यालय पर विभिन्न स्तरों पर सरकारी अधिकारियों की संबंधित मुद्दे पर की गई टिप्पणी की गवाह होती है। यह नोटिंग बताती है कि किस अधिकारी ने कहां क्या कहा और क्यों तथा कैसे काम हुआ या फिर नहीं हुआ।एक बात और समझने की यह है कि आखिर इस देश के हित के लिए ऐसी कौन सी फाइल है, जिसकी जानकारी इस देश के नागरिक को नहीं दी जा सकती। रक्षा सौदों की या फिर उन जासूसों से संबंधित जो कभी भारतीय कैबिनेट का हिस्सा रहे हैं। जी हां, हाल ही में एक भारतीय लेखक ने अपनी किताब के माध्यम से सीआईए की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया है कि 1971 के युद्ध के दौरान अमेरिका का एक जासूस भारतीय कैबिनेट में था। यहीं यह भी बताना जरूरी है कि भारत के पाकिस्तान के आक्रमण के जवाब को कमजोर करने और भारत को वापसी पर मजबूर करने के लिए अमेरिका की नौसेना का एक बेड़ा भारतीय समुद्री सीमा के करीब पहुंच गया था।
मतलबयह कि सरकार का सारा काम और सरकार की आंखें, हाथ, पांव और यहां तक की दिमाग भी नौकरशाह होते हैं। यही नौकरशाह या कहें बड़े अधिकारी सरकारी योजनाओं कि क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार होते हैं। योजना बनाते भी यही हैं। फाइलों में इन्हीं अधिकारियों की टिप्पणी पर कार्यवाही आगे बढ़ती है और अंत में तय हो जाता है कि काम होना है या नहीं... या फिर किसका काम होना है और किसका नहीं। यहां तक कि इन सबके पीछे कारणों की भी जानकारी कई बार इसी नोटिंग में मिल जाती है।सूचना के अधिकारों के तहत जब इसको जानने की बात आई तो पहले सरकार मान गई लेकिन बाद में इस हिस्से को ही काट देने का प्रयास किया गया। आखिर क्यों... जो सरकार पहले इस बात को तैयार थी कि नोटिंग भी सूचना के अधिकार के तहत दिखाए और उपलब्ध कराए जा सकते हैं। वह बाद में लोगों की पहुंच से हटा दिए गए। मायने तो साफ हैं कि लोकतंत्र में लोगों से ही आंख मिचौली। उनके भविष्य और सूचना के अधिकारों तक पर रोक। उनके सामने परिणाम हैं, मगर परिणाम के कारणों पर पर्दा पड़ा रहेगा। इसे ऐसे भी सकते हैं कि अपराध तो होगा, मगर अपराधी कौन है, यह आम नागरिक नहीं जान सकता है।मुद्दा सूचना के अधिकार पर चली कैंची का नहीं है, मगर देश में आज आम नागरिक के हाथों की ताकत बने और साथ ही हुक्मरान की मनमर्जी पर अंकुश के साथ नजर रखने वाली मीडिया पर भी अपना कब्जा बढ़ाने की नीयत से सरकार कानून बनाने की ओर अग्रसर है। क्या यह होने दिया जाना चाहिए, आप तय करें।अकबर इलाहाबादी ने अरसे पहले यह लिखा 'न तीर निकालो, न तलवार निकालो, लड़ना है तो यारो अखबार निकालो'। गुलाम भारत में कलम ने पुरजोर तरीके से अपना काम बखूबी निभाया। शायद ही ऐसा कोई नेतृत्व रहा हो, जिसने खास और आम तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए कलम की धार का इस्तेमाल न किया हो। एक साथ लाखों लोगों को जागरूक करने, संवेदनशील बनाने और हक की लड़ाई के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ आगे आकर लड़ने को तैयार किया।आज़ादी के बाद पत्रकारिता के मायनों और दिशा पर बुद्धिजीवियों ने कई मंचों पर चर्चा की, परंतु एकमत नहीं हो पाए। और दिशाहीन पत्रकारिता आज समय के थपेड़ों को झेलते हुए बाजारोन्मुख हो चुकी है। आजादी को अब 60 वर्ष से ज्यादा हो चले है और अखबार के साथ-साथ अब टीवी पर न्यूज चैनलों का जमाना है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप से अपने स्थापित करने वाली पत्रकारिता के लिए दिशा तय करना अब बेहद आवश्यक हो चला है। शायद इस देश का जागरूक मीडिया इस देश की बड़ी ताकत है। गलतियां किससे नहीं होती, मीडिया बढ़ रहा है, गलती हुई है, तो सुधार भी होगा। मीडिया ने अपने ऊपर स्वयं बंदिशें लगाई हैं। उम्मीद है कामयाब होंगे, लेकिन आवाज उठनी चाहिए, ताकि सरकार या नौकरशाह अपने शिंकजे में मीडिया को कसने न पाएं।

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