एकला चलो की बात करते हैं कई दोस्त
मैं क्यों नहीं अब अकेला चल पाता हूं,
रोज़ कहीं न कहीं कभी न कभी,
खुद को तन्हा ही पाता हूं।
अब जिद में बहुत दूर आ गया हूं,
पड़ाव दर पड़ाव पार कर आया हूं।
कभी खुश हुआ कभी गम ने छुआ
अकेला फिर भी चला, चलता गया,
हौसला बुलंद रहा, जोश ने झुकने न दिया,
न कभी हार मानी न कभी रार ठानी।
मिलते-मिलाते, कटते-बचते यहां तक चला आया हूं।
रोज़ कहीं न कहीं कभी न कभी,
खुद को तन्हा ही पाता हूं।
संतोष ने दामन न छोड़ा है,
तन और मस्तिष्क का सहारा रहा है
दोस्त नए बन गए पुरानों का साथ है
फिर भी कभी थका पाता हूं।
रोज़ कहीं न कहीं कभी न कभी,
खुद को तन्हा ही पाता हूं।
अब मैं क्या करूं कुछ जुनून कम है,
पुराने दिन सताने लगे हैं,
कुछ पछतावा क्यों चला आता है,
क्या कमजोर हो गया हूं,
मान नहीं पाता हूं,
रोज़ कहीं न कहीं कभी न कभी,
खुद को तन्हा ही पाता हूं।
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