Sunday, July 11, 2010

जो बनेगा दलित देवता वह बनेगा का यूपी का सिरमौर

उत्तर प्रदेश में अपने पैर मजबूत करने के लिए एक समय कांग्रेस पार्टी का दामन थामे रखने वाले दलितों पर फिर कांग्रेस पार्टी की नजर टिक गई है। इंदिरा जी ने सत्ता गंवाने के बाद गरीबी हटाओ का नारा दिया और देश के गरीबों ने कांग्रेस का दामन थामा और इंदिरा गांधी पुन: सत्ता के शीर्ष पर काबिज हुईं। धीमे-धीमे गरीबों की बात कम होने लगी और दलित-पिछड़े फिर अति पिछड़ों की राजनीति ने अपनी जगह बना ली।
अब तक अपने को गरीबों से अलग दलितों की राजनीति का केंद्र बना चुकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दलितों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और यूपी में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी (सपा) ने 'माई' फार्मूला का सफल प्रयोग कर लिया था। बसपा का दलितों की राजनीति के साथ-साथ सपा का माई फार्मूला और रही सही कसर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राम मंदिर आंदोलन ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भाजपा का बाहरी आवरण हटा और राम के नाम पर उनके साथ खड़े समर्थक छिटकने लगे। मौके की नजाकत को बसपा ने भांपा और सोशल इंजीनियरिंग का कारगर फार्मूला लगाया और पूर्णता से सत्ता पर पकड़ बना ली। अब एक बार दलितों पर केंद्रित राजनीति गरमाने लगी है।
मायावती ने दलितों के मसीहा तय कर दिए हैं। 'आजाद भारत' में दलितों के देवता कौन इस बात की लड़ाई शुरू हो गई है। कांग्रेसियों की नज़र में दलितों को सम्मान दिलाने का काम महात्मा गांधी ने किया तो माया का इतिहास कहता है कि बाबा साहेब आंबेड़कर, छत्रपति शाहू जी महाराज, माननीय कांशीराम और खुद मायावती ने यह पावन काम किया और आज भी कर रही हैं। इनमें से अधिकतर को आजाद भारत महापुरुषों की श्रेणी में रख चुका है और तमाम मौकों पर चित्रों का अनावरण, मूर्तियों की प्रतिष्ठापना, पार्कों का निर्माण, संस्थानों के नामकरण, सरकारी योजनाओं के नाम आदि कर अपनी कृतज्ञता जताता रहता है। राष्ट्र कृतज्ञ हैं और इनका कर्ज उतार रहा है और भविष्य में वर्ष दर वर्ष इस कार्य को कर अनुगृहीत होता रहेगा।
किंतु राजनीति के रंग अजीब हैं और वोटों की राजनीति महापुरुषों की कुर्बानी को कमतर करती जा रही है। मायावती समाज को बदल कर रखना चाहती थीं मगर खुद कितना बदल गईं हैं यह उनको अब आइना भी नहीं बता सकता। एक बार भी वह अपने पूर्व के दिनों और विचारों को याद कर लें तो शायद वाकई में राज्य के वास्तविक दलितों का भला हो जाए। क्या वैसे ही कांग्रेस पार्टी के 'राजकुमार' यानि राहुल गांधी देश में राजनीति को बदलना चाहते हैं। देश में युवाओं का संख्याबल वोटों को प्रभावित करने लगा सो राहुल का युवा होना उनके पक्ष में जाने लगा। हाल ही में युवाओं को अपनी तथा पार्टी की ओर आकर्षित करने के लिहाज से राजनीति के पहाड़े सीख रहे भाजपा के कथनानुसार राहुल 'बाबा' ने युवाओं को लुभाने वाला एक नया नारा दे डाला है। राहुल ने कहा, ‘मेरे पास कई विकल्प थे। पहला, जो सिस्टम मुझे मिला है मैं उसे ढोता रहूं और दूसरा, इस सिस्टम को बदल दूं। मैंने सिस्टम बदलने का फैसला किया और इसलिए बदलाव की बात करता हूं।’ अच्छा लगा, भारतीय राजनीति के इतिहास में एक अरसे बाद किसी नेता ने बदलाव की बात कही, सिस्टम को बदलने की बात कही। किसी ने समझा कि सिस्टम बदले बिना कुछ संभव नहीं है।
देश के युवाओं की मनमाफिक बात है (बदलाव की) और दिशाहीन, पर जोश से भरा युवा बहने को तैयार है। प्रश्न है ये सिस्टम कौन बनाता और बदलना कौन चाहता है। कम से कम अब तो राहुल गांधी यह नहीं कह सकते कि वह कुछ नहीं कर सकते। वह सांसद हैं और एक ऐसी पार्टी के सांसद जिसकी अगुवाई में पार्टी की मजबूत, जी हां, मजबूर नहीं, सरकार चल रही है। कैसे बदलेगा यह सिस्टम यह कौन जानता है। क्या राहुल गांधी के पास कोई जादू की छड़ी है जो जिसे घुमाकर वे इस 'सिस्टम' को 'देशहित' में न कि पार्टी हित में बदल देंगे? फिल्मों से निकालकर देश को यह 'सिस्टम' नाम की नई गाली देकर क्या राहुल यह जताना चाहते हैं कि निचले तबके के गरीब (दलित) लोगों का दर्द वह समझने लगे हैं और किन कारणों से यह दर्द है उस नब्ज पर भी उनका हाथ है। यदि यह कल्पना कोरी नहीं है तो देश में सुंदर अरुणोदय होने वाला है।
आम नागरिक की हैसियत से देखा जाए तो आजाद भारत में संसद का महत्वपूर्ण कदम सूचना का अधिकार देना है और सरकार का नरेगा जैसी योजना का लागू करना है। इस परियोजना का नाम भी महात्मा गांधी के नाम पर रख दिया गया है। कारण तो सर्वविदित है। यह सिस्टम नहीं है क्या। शायद अभी राहुल गांधी की नहीं चली होगी। देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तकरीबन दो दशकों पूर्व एक बात कही थी कि सरकार से जो पैसा जनता की मदद के लिए जाता है उसका 15 फीसद ही जरूरतमंद तक पहुंचता है। राहुल बाबा उस समय किसी स्कूल में पढ़ा करते रहे होंगे मगर पिता की यह बात उनको आज भी याद है। इन्हीं राजीव गांधी की गैर-मौजूदगी या फिर कहें हत्या के बाद मजबूरी में राजनीति में पदार्पण करने को विवश हुईं यूपीए की अध्यक्षा सोनिया गांधी उस समय भारत की संस्कृति और भाषा से परिचित होना आरंभ कर चुकी होंगी।
अब यह हकीकत है कि सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी आज कुछ हद तक भारत से परिचित हो चुके हैं। देश की जनता भी दोनों को स्वीकार कर चुकी है। दोनों देश में वीआईपी हैं और वोटरों के चहेते भी बन गए हैं। सबूत भी है कि केंद्र में और एक दर्जन से अधिक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं और यही दोनों नेतागण (मां सोनिया और बेटे राहुल) पार्टी के अगुवा हैं। कितनी विडंबना है कि दो दशकों से अधिक समय बीत चुका है जब कैलासवासी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह 15 फीसद वाली बात कही थी और आज उनका बेटा भी उसी सिस्टम और उतना ही नहीं, उससे भी कम पैसे जरूरतमंदों तक पहुंचने की बात स्वीकारता है और कुछ कर न पाने की बेबसी और लाचारी दर्शाता है।
एक आम नागरिक की हैसियत से यह प्रश्न यहां अवश्यंभावी हो जाता है कि आखिर किस पैसे की बात कर रहे थे स्वर्गीय गांधी और किस पैसे की बात कर रहे हैं वर्तमान के गांधी। यह इस देश के करोड़ों लोगों की उस गाढ़ी कमाई का हिस्सा है जो वह टैक्स के रूप में सरकार के पास जमा कराते हैं। तकलीफ इस बात की ज्यादा है कि राहुल यह जानते हैं कि यह पैसा अब गरजू लोगों तक सिर्फ पांच फीसदी ही पहुंच रहा है। अब एक और प्रश्न उठता है कि एक सांसद और ऊपर से केंद्र की सत्ता में बैठी पार्टी का महासचिव और फिर ऐसा महासचिव जिसका अघोषित ओहदा किसी प्रधानमंत्री से कम नहीं है ऐसी बात क्यों करता है। क्या यह इस देश की पीड़ित जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है?
बिना किसी भी प्रश्न या शंका के यह कहा जा सकता है कि राजीव जी ने आईटी क्षेत्र विकास करने का सपना देखा और नींव रखी अब इस क्षेत्र में देश काफी तरक्की कर चुका है। राजीव गांधी के सपनों को साकार कर रहा है और आज फिर एक बार राहुल गांधी कुछ वैसी ही बात कर रहें हैं। राजीव जी कहा करते थे हमें देखना है, हमें कुछ करना है। राहुल भी करना चाहते हैं युवा हैं और अपनी पार्टी के युवा सहयोगियों से अपील कर चुके हैं कि दलितों के बीच जाकर वो महात्मा गांधी जयंती मनाएं। टीवी पर देश ने देखा कि कैसे दलितों के घर 'तमाशा भोजन' दलित प्रेम का आडंबर किया गया और वाहवाही लूटने का प्रयास किया गया। शायद राहुल गांधी की तरह हकीकत से परिचित होने से कई नेतागण डर से गए। देश में कांग्रेस पार्टी द्वारा ही एक महत्वकांक्षी परियोजना नरेगा लागू की गई है और राहुल का ही एक वक्तव्य है कि इसमें भी रुपया पीड़ित गरीब गांववालों तक नहीं पहुंच पा रहा।अखबारों और टीवी चैनलों के माध्यम से तमाम खबरें प्रकाश में आती हैं कि अमुक जिले में योजना में तमाम स्तर पर धांधली है। राहुल गांधी स्वयं गाहे-बगाहे गैर कांग्रेस शासित राज्य में जाकर ऐसा ही बयान देते रहते हैं जैसा कि उन्होंने यूपी के लिए भी कहा है। देश में 28 राज्य हैं क्या कोई एक राज्य ऐसा नहीं बन सकता जहां तमाम सरकारी योजनाएं एक आम आदमी तक पूरे सौ टका पहुंचे। चलिए माना एक योजनाएं ठीक से लागू की जा सकें। राज्य बड़ी बात हो गई, देश में 593 जिलें हैं, क्या एक जिला ऐसा नहीं हो सकता। जिला भी छोड़िए, देश में पांच लाख 93 हजार सात सौ 31 गांव हैं, क्या एक गांव ऐसा राहुल नहीं बना सकते जहां अपनी ही केंद्र की सरकार की योजना को अपने ही जिले के किसी एक गांव (अपना गांव तो है नहीं) में जमीनी हकीकत में उतार सकें। क्या यह प्रयास राहुल नहीं कर सकते, स्वयं नहीं कर सकते तो सही मायने में योजना के क्रियांवयन के लिए अपने कार्यकर्ताओं को आदेशित करें कि योजनाओं का लाभ हर उस आदमी तक पहुंचे जो उसका हकदार (किसी फर्जीवाड़े का हिस्सा बने बगैर तथा किसी अपात्र को लाभ पहुंचाए बगैर) है। इससे जरूरतमंदों का उन्नयन हो सकेगा और दो घरों का चूल्हा जल सकेगा तथा भूखे पेट को रोटी नसीब हो पाएगी। स्वयं तकनीक के जानकार और सूचना क्रांति में उसका उपयोग कर रहे राहुल गांधी ने भी 'दलित प्रेम' दिखाया है। मायावती को जैसे चींटी लग गई। और अपनी कथित 'मीठी' जुबान से अपने कैडर बेस वोट बैंक के सरकने के खतरे भांपते हुए लोगों को कांग्रेस के इस दिखावे के दलित प्रेम से आगाह भी कर चुकी हैं। हां, पिछले 20 सालों में कभी भी अपना सुरक्षा घेरा छोड़कर लोगों में बीच में न जाने वाली बहन मायावती भी सोनिया की तरह राह से कुछ भड़क कर लोगों से मिलने उनके बीच जाने लगी हैं।
राहुल ने विदेश में स्नातक की पढ़ाई करी है और एमफिल भी किया है। सभी जानते हैं कि देश में बांटो और राज करो की नीति ही अपना कर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं किंतु युवाओं की उनसे अपेक्षा और उम्मीदें कुछ अलग हैं। काश! समस्याओं कe जिक्र ही नहीं उनके संभावित हल पर विचार और फिर एक रोडमैप भी तैयार हो जाए जो इस देश के युवा ही नहीं बूढ़ा भी, अमीर और गरीब, क्या शहरी और क्या ग्रामीण, सभी को केंद्रित कर बनाया गया हो ताकि एक खास वर्ग ही नहीं पूरा देश वैश्विक पटल पर अग्रणी कतार में खड़ा दिखे।


कुछ संदर्भों का प्रयोग हुआ है उनके लिंक...

http://khabar.ndtv.com/2009/09/30001648/rahul-system.html
गरीब और नेता के बीच गहरी खाई : राहुल

http://khabar.ndtv.com/2009/10/01203925/mahatma-gandhi-autobiography.html
सबसे अधिक बिकती है महात्मा गांधी की जीवनी

http://khabar.ndtv.com/2009/10/02161405/NREGA.html
नरेगा के साथ जुड़ा महात्मा गांधी का नाम

http://www.zeenews.com/nation/2009-04-27/527179news.html
Elephant eating funds in Lucknow: Rahul Gandhi

http://bundelkhand.in/portal/VIDEO/Not-even-5-percent-of-allocated-money-reaches-Bundelkhand-Rahul-Gandhi
Not even 5 percent of allocated money reaches Bundelkhand: Rahul Gandhi

http://newshopper.sulekha.com/topic/rajiv-gandhi/blogs/2009/01/a-school-and-a-schoolboy.html
Many of us India have always wondered about where the tax payer’s money is going.

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