Thursday, July 20, 2017

आडंबर विचारों का टूटता तिलिस्म.. पत्रकार और पत्रकारिता पर उठे सवाल...

देश में आजकल पत्रकारों की दो जमात हो गई है. एक सहिष्णु हैं, दूसरे असहिष्णू. एक बुद्धिजीवी हैं तो दूसरे डिजाइनर. एक लेफ्ट हो गए तो दूसरे राइट. एक सापेक्ष हो गए हैं तो दूसरे निरपेक्ष. एक तरफ सेकुलर हैं (इनमें नास्तिकों को जगह मिली हुई है) तो दूसरी तरफ धर्मांध. इस प्रकार पत्रकारों के इस विभाजन को शब्दकोश से कुछ और शब्द निकालकर बांटा जा सकता है.

देश में जब तक नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं बनी थी तब तक सरकार से लेकर समाज तक इस विभाजन को न तो महसूस किया गया न हीं देखा गया और न ही इस मुद्दे को किसी ने तूल दिया. यह संकट यकायक केंद्र में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही पैदा हो गया और अब टीवी चैनलों से लेकर अखबारों पर भी सीधे आरोप लगने लगे हैं कि वह राइट (अरे सही नहीं) है या लेफ्ट.

सवाल उठता है कि पत्रकारों की जमात में यह विभाजन क्यों हुआ और क्यों दिखने लगे, समझ में आने लगा या फिर कहें कि संकट स्पष्ट हो गया. यह सब मेरी राय में विश्वसनीयता के संकट का दौर पैदा हो गया है. पहले भी पत्रकारों की जमात में यह समस्या बराबर रही, लेकिन मलाई काट रहे कई पत्रकार बड़े-बड़े संस्थानों में संपादकों की कुर्सी पर बैठकर मलाई काटते रहे. मोटी तनख्वाह लेते रहे और अपने सदृश्य विचार वाले को या फिर कहें अपने चमचों की जमात बिठाकर अपनी अपनी सत्ता का सुख भोगते रहे.

गिने चुने पत्रकारों की बात न की जाए तो आजादी के बाद से ही भारतीय राजनीति ने पत्रकारों की जमात के साथ अघोषित संधि कर ली थी. राज्यों से लेकर केंद्र तक अधिपत्य स्थापित कुछेक राजनीतिक दलों ने सत्ता की हनक का भरपूर इस्तेमाल किया. इस दौरान हजारों पत्रकार और संस्थान दिन दुगुनी और रात चौगुनी तरक्की करते गए. लेकिन पिछले तीन दशक में पत्रकारिता में खासा बदलाव देखने को मिला. पत्रकारों की एक नई जमात तैयार हुई जिसने नए खोजों पर यकीन किया. नए विचारों का स्वागत किया और नए साहित्य से लेकर नए ऐतिहासिक विचारों के लिए जगह बनाई. जैसे-जैसे इन पत्रकारों की जमात का कद बढ़ता गया वैसे वैसे पुराने (अब विचारों से भी) पत्रकार अपनी सत्ता की चूलों को हिलता हुई महसूस करने लगे. ऐसे में उनके सामने अपने, अपने विचारों अस्तित्व  पर संकट दिखने लगा. संकट केवल इतना ही नहीं बल्कि इस बात पर भी मंडराने लगा कि क्या अब तक जो साहित्य हमने तैयार किया, जो विचार हमने प्रतिपादित किए क्या वह गौण हो जाएंगे. दूसरी समस्या इन पत्रकारों को यह भी सताने लगी कि क्या आने वाली पीढ़ी हमारे विचारों को सत्ता से जुड़ा होने के नजरिए से देखेगी. क्या महानता की जिस श्रेणी की बात अब तक जमाने के पत्रकारों के लिए होती रही वह एक तिलिस्म के टूटने के समान माना जाएगा. क्या अब तक जो बात कही वह सब महत्वहीन हो जाएंगी. क्या सेमीनारों में हमारे नाम के साथ खिलवाड़ होने लगेगा. क्या अब तक मिले पुरस्कारों को सम्मानित नहीं, घृणित नजरों से देखा जाएगा. अब यह पत्रकार सहिष्णु हो गए हैं और नए विचारों को स्वीकारने वाले असहिष्णु हो गए हैं.

इसी प्रकार टीवी चैनलों और अखबारों पर भी ठप्पा लगने लगा है. यह काम कोई और नहीं किसी भी आम नागरिक से सवाल कर दें तो वह स्पष्ट रूप से बता देता है कि कौन सा चैनल या फिर अखबार किस तरफ का झुकाव रखता है. यह संकट इसलिए भी पैदा हो गया क्योंकि गुजरात दंगों पर विस्तार से चर्चाएं हुईं. टीवी स्टूडियो में तमाम आरोपियों को दोषी ठहरा दिया गया. हर नेता का टीवी से लेकर अखबार तक में ट्रायल हुआ. लेकिन जब बात दूसरे राज्यों पर आई तो यही पत्रकार मूक बधिर की श्रेणी में आ गए. न तो राजनीतिक दल का नाम आता है न ही मुख्यमंत्री का नाम आता है और न ही दंगे में नाकामी के लिए वहां के प्रशासन की क्लास लगाई जाती है. पुलिस जो करे वह वहां पर सही हो जाता है. महीनों दंगा होने के बाद भी मीडिया में पीड़ितों की तस्वीर तक दिखाई नहीं देती.

ऐसे तमाम सवाल अब उस दौर के पत्रकारों के सामने आ गए हैं. अपनी महानता की आड़ में वह क्या कर गए ऐसे पत्रकारों को भी अब चिंतन की आवश्यकता है कि आखिर उन्होंने दिशा देने के बजाय ऐसे कौन से गलत कदमों का चयन किया जिससे पत्रकारिता हृांस हो रहा है. पत्रकारों की जमात में भी स्पष्ट रूप से भटकाव दिखने लगा है. जनाब पत्रकार बनिए. जमीनी हकीकत को बयान कीजिए. अपने या फिर अपने-अपने आकाओं के विचारों को नहीं...

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