Sunday, February 21, 2016

आखिर सोशल मीडिया ही असली मीडिया क्यों बन गया आदरणीय पत्रकार साहब

आजकल कुछ लोग डर हुआ महसूस कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि देश में डर का माहौल बनाया जा रहा है। एक चैनल ने इसे बयावह स्थिति बताते हुए अपना प्राइम शो ही अंधेरे में कर दिया और कहा कि मैं कुछ सुनाना चाहता हूं। आज ये अपनी आवाज सुनाना चाहते हैं क्योंकि लोग अब इनकी नहीं सुन रहे हैं। क्यों ये चंद लोग डरा हुआ महसूस कर रहे हैं। बहस तो देशद्रोह, देशप्रेम या इन लोगों के शब्दों में कहें तो राष्ट्रवाद। शब्दों के बवंडर से कुछ लोग अभी तक समाज को अपने हिसाब से चला रहे थे। अपने कुछ आकाओं को सही साबित करने के लिए वर्षों से कोशिश जारी रही। यहां फर्क जरूर करना चाहिए कि कुछ लोग ही ऐसा कर रहे थे जैसे कि कुछ लोग ही आज कथित रूप से डरे हुए हैं। इन लोगों को आज इनके शब्दों में राष्ट्रवादी लोगों से डर लग रहा है।

अजीब सी बात है कि राष्ट्रवादी जैसे क्लिष्ट शब्द का प्रयोग हो रहा है। लोग देशप्रेम कहने से क्यों हिचकिचा रहे हैं। क्यों देशप्रेमियों से इन लोगों को डर लगा है। क्यों देशप्रेम या राष्ट्रवाद इनके बपौती है। क्या ये चंद लोग ही बताते रहेंगे कि राष्ट्रवाद क्या है। कुछ दिन पहले तक लोकतंत्र को बचाने के नाम की दुहाई देकर बड़े ऊंचे स्वरों ऐसे राष्ट्रवादी लोगों के मुंह से सुनाई दे रहा था कि मेरे देश का झंडा लेकर ये लोग मारपीट कैसे कर सकते हैं... मेरे देश का तिरंगा लेकर ये लोग कैसे किसी पर हमला कर सकते हैं। पता नहीं क्या क्या... मेरे देश... मेरा देश... मेरा लोकतंत्र... मेरा... मेरा और मेरा... ये मेरा इनका बहुत छोटा क्यों है। इनके मेरे का दायरा इतना छोटा क्यों है।

 ये चंद लोग सिर्फ चंद लोगों की बात करते रहे... हमेशा से चंद लोगों की आवाज ही उठाते रहे और दिखावा करते रहे कि आम लोगों की आवाज उठाते हैं। हां कुछ लोगों ने लोगों को बेवकूफ भी बनाया है। साल में इक्का दु्क्का बार ही लोगों की आवाज बने और कुछ कर दिखाने का दावा किया। कहने के लिए ही ये अपने काम को ईमानदारी से दिखाते रहे। कभी इन लोगों ने सभी की बात नहीं की... आखिर ये जनता को, आम आदमी को बेवकूफ क्यों समझते हैं। क्यों हर चीज को अपने सहूलियत के हिसाब से प्रयोग में लाते हैं। क्यों नहीं जो है वही दिखाते हैं। क्यों भूल जाते हैं कि विचार करने की क्षमता केवल इनके पास नहीं है। आम आदमी भी अब कुछ सोचने लगा है। आम आदमी भी अब पढ़ लिख रहा है। देश को आजाद हुए 65 साल से ज्यादा हो चुके हैं और शिक्षा का स्तर 24 से 75 प्रतिशत तक पार कर चुका है। अब ये देश वैसा नहीं रहा कि देशभक्ति भी सिखाई जाए। लोग हर मायने में अपना भला बुरा समझने लगे हैं। उन्हें मालूम हो चुका है कि सही क्या है और सही दिखाया क्या जाता है। वे धीमे-धीमे सच्चाई जानने, समझने और सच्चे लोगों को पहचानने लगे हैं।


कुछ दिन पहले तक मीडिया जगत ये चंद लोग देश दुनिया को बताने में लगे थे कि सोशल मीडिया की ताकत क्या है। आज हर आदमी रिपोर्टर है... हर आदमी जागरूक है, उसे पता है कि क्या करना है, सोशल मीडिया की रिपोर्टों पर आधारित कार्यक्रम बनाते रहे और खूब वाहवाही से लेकर टीआरपी भी बटोरी। खुद इसी माध्यम से पत्रकार का तमगा लगा लिया। खुद के विचार थोपने का माध्यम मिला तो खूब छापा और खूब तर्क पेश किए।  अपना समय चला गया और नए लोगों ने भी माध्यम को अपना लिया। लोग अब दूसरे की राय को सुनने कम अपनी राय भी देने लगे... तो डर लगने लगा है। लोग क्यों और कब तक दूसरों को बर्दाश्त करें। आखिर क्यों...
आखिर क्यों लोग अपने विचार व्यक्त न करें। क्यों इस अभिव्यक्ति की आजादी का हक चंद लोगों का ही बना रहे। ये चंद लोग हमेशा से अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा बुलंद करते रहे हैं और इसी की आड़ में जब मौका मिला किसी भी सरकार और खास तौर पर अपने आकाओं की विरोधी सरकार पर हमलावर रहे हैं। लेकिन आज जब इस आजादी का लोग प्रयोग करने में लगे हैं तो ये उन्हें अराजक और राष्ट्रभक्त को गाली बनाने में लग गए हैं।

अब सोशल मीडिया लोगों के हाथ में हथियार है अपनी भड़ास निकालने के लिए... कुछ दिन पहले तक इसी कथित बुद्धिजीवी लोग जागरुकता और पता नहीं क्या क्या कह रहे थे लेकिन अब जब इनकी दुकान चलना बंद हो रही है और लोगों का इनपर से विश्वसा उठता जा रहा है... जब से इनकी समझ और समझाने की कला पर से लोगों का विश्वास खत्म हो चुका है तब से ये चंद लोग अब अपने विरोधियों की अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगाना चाहते हैं। अब इन्हें अपनी असहिष्णुता और असहनशीलता नहीं दिखती। अब ये अपने विरोधी स्वरों को सुनना नहीं चाहते हैं। इन लोगों को समझना होगा कि इनकी मीडिया की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है। लोगों को इसके साथ ही यहां पर गलत सामग्री जरूर मिलती है लेकिन विचार भी मिलता है... उन्हें इस बात की आजादी होनी चाहिए कि सच क्या है वह खुद करें... न कि उसे स्वीकारें जो उन्हें दिखाने, समझाने की कोशिश होती है। इसलिए मीडिया पर सोशल मीडिया भारी पड़ गया।

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